भारत को भीतर-ही-भीतर खा रहा भ्रष्टाचार: एक कठोर लेकिन ज़रूरी सच्चाई
भारत को भीतर-ही-भीतर खा रहा भ्रष्टाचार: एक कठोर लेकिन ज़रूरी सच्चाई
न्यूज़ीलैंड के लेखक ब्रायन ने भारत के बारे में जो तीखी बात कही, उसकी मूल भावना सरल है—भ्रष्टाचार हमारे सिस्टम की बीमारी नहीं, हमारी रोज़मर्रा की आदत बन चुका है। यही दृष्टि अब सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय है, क्योंकि यह हमें हमारे ऐसे सच से रूबरू कराती है, जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
1. भ्रष्टाचार: भारत की सांसों में घुली स्वाभाविकता
भारत में रिश्वत, सिफ़ारिश और तोड़-मरोड़ कर काम करवाना एक आम व्यवहार की तरह स्वीकार किया जाता है।
यहाँ भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध कम, उसे झेलना ज़्यादा होता है।
सवाल यह नहीं कि भ्रष्टाचार क्यों है—सवाल यह है कि यह इतने लंबे समय तक बिना किसी डर के फलता-फूलता कैसे रहा?
क्योंकि समाज इसे अनैतिक मानता ही नहीं।
2. लेन-देन का धार्मिक और सामाजिक कल्चर
ब्रायन की मूल बात यही थी कि भारत का रिश्वत वाला व्यवहार केवल कार्यालयों तक सीमित नहीं है—यह हमारी धार्मिक परंपराओं से लेकर रोज़मर्रा के रिश्तों तक फैला है।
हम “दो और लो” वाले मानसिक ढाँचे के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि यह मॉडल सत्ता, व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य—हर जगह घुस चुका है।
धन, चढ़ावे और विशेष कृपा का यह मॉडल हमें एक खतरनाक विचार सिखाता है:
“योग्यता से नहीं, रास्ता निकालकर चीज़ें मिलती हैं।”
और यही सोच ऑफिस के बाहर आकर रिश्वत का रूप ले लेती है।
3. इतिहास: लड़ाई से ज़्यादा सौदेबाज़ी का देश
भारत के इतिहास में कई युद्ध तलवार से नहीं, सौदेबाज़ी से जीते गए।
कई किले रिश्वत देकर खोले गए, कई सेनाओं ने खरीद-फरोख्त के बदले हार मान ली।
यही मानसिकता धीरे-धीरे समाज की रगों में समा गई—काम कोशिश से नहीं, जुगाड़ से होगा।
यही कारण है कि भारतीय समाज संघर्ष से ज़्यादा शॉर्टकट पर विश्वास करता है।
4. समाज में विभाजन और आपसी अविश्वास
जाति, धर्म और पहचान के असंख्य टुकड़ों में बँटा समाज किसी एक नैतिक ढाँचे पर खड़ा नहीं हो पाता।
जब समाज एक-दूसरे को बराबर नहीं मानता, तो न्याय, समानता और साफ-सुथरे व्यवहार की नींव ही नहीं पड़ती।
जिस देश में लोग एक-दूसरे को ही शक की नज़र से देखते हों, वहाँ ईमानदारी टिक ही नहीं सकती।
5. भ्रष्टाचार भारत को किस तरह खा रहा है
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योग्य युवाओं के अवसर चोरी हो जाते हैं
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सरकारी तंत्र आम आदमी के खिलाफ हो जाता है
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शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजें बाजार में बिकने वाली सेवा बन जाती हैं
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उद्यम और नवाचार दम तोड़ देते हैं
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विदेशी निवेशक भरोसा खो देते हैं
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न्याय कमजोर होता है और अपराधी ताकतवर
भारत की असली आर्थिक मंदी यही है—भ्रष्टाचार की मंदी।
6. बदलाव कहाँ से आएगा?
कानून सख्त होना ज़रूरी है—पर पर्याप्त नहीं।
समस्या सिस्टम से बड़ी है; यह मानसिकता की समस्या है।
बदलाव तब शुरू होगा जब—
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रिश्वत लेना “चालाकी” नहीं, शर्म माना जाएगा
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जुगाड़ को प्रतिभा समझना बंद होगा
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योग्यता को तवज्जो मिलेगी
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राजनीति में साफ-सुथरे लोगों की माँग बढ़ेगी
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समाज एक समान नैतिक ढाँचा अपनाएगा
भारत एक असाधारण क्षमता वाला देश है, लेकिन भ्रष्टाचार उसकी ताकत को धीरे-धीरे नष्ट कर रहा है।
यह बीमारी बाहर से नहीं आई—हमारा व्यवहार, हमारी सामाजिक आदतें, हमारा इतिहास और हमारी सोच ही इसे रोज़ पोषित कर रहे हैं।
अगर भारत को आगे बढ़ना है, दुनिया में नेता बनना है, तो सबसे पहला युद्ध भ्रष्टाचार के खिलाफ होना चाहिए—वह युद्ध जो भीतर से लड़ा जाए।
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