देश को ज़ख्म देने वाला वो दौर - बंगाल फाइल्स की असली कहानी


इन दिनों विवेक अग्निहोत्री की नई फिल्म “द बंगाल फाइल्स” खूब चर्चा में है। पाँच सितंबर को यह भारत में रिलीज़ हो रही है, लेकिन विदेशों में इसके प्रदर्शन को लेकर कई सवाल और विवाद खड़े हो गए हैं। इससे पहले भी निर्देशक “द कश्मीर फाइल्स” और “द ताशकंद फाइल्स” जैसी फ़िल्में बना चुके हैं, जो ऐतिहासिक घटनाओं की गहराई और विवादों के कारण सुर्ख़ियों में रही थीं।

पर असल सवाल यह है कि “द बंगाल फाइल्स” किस सच्चाई पर आधारित है? इसका जवाब हमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम वर्षों की ओर ले जाता है, जब देश आज़ादी की दहलीज़ पर था और हिंदू-मुस्लिम राजनीति अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। इसी दौर में 1946 के कलकत्ता हत्याकांड और नोआखली दंगों ने इतिहास की धारा को पूरी तरह बदल दिया।


16 अगस्त 1946: डायरेक्ट एक्शन डे और ग्रेट कलकत्ता किलिंग

1940 का दशक आते-आते मुस्लिम लीग ने “दो राष्ट्र सिद्धांत” को खुले तौर पर स्वीकार कर लिया था। मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की मांग को निर्णायक मोड़ तक ले जाना चाहते थे। दूसरी ओर, कांग्रेस एक संयुक्त और धर्मनिरपेक्ष भारत की कल्पना कर रही थी।

इसी पृष्ठभूमि में मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन डे का आह्वान किया। उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों पर दबाव डालना ताकि पाकिस्तान की मांग को स्वीकार किया जा सके।

उस दिन कलकत्ता (अब कोलकाता) में विशाल रैली आयोजित हुई। प्रशासन ने इसे नियंत्रित करने की गंभीर कोशिश नहीं की। परिणाम यह हुआ कि शहर में चार दिनों तक भीषण सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी।

  • आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार पाँच हज़ार से अधिक लोग मारे गए।

  • पंद्रह हज़ार से ज्यादा लोग घायल हुए।

  • एक लाख से अधिक लोग बेघर हो गए।

कलकत्ता की गलियों में लाशें पड़ी थीं, घरों और बाज़ारों में आग लगी थी। यह “ग्रेट कलकत्ता किलिंग” के नाम से इतिहास में दर्ज हुआ।

इतिहासकार सुगाता बोस अपनी किताब Modern South Asia में लिखते हैं कि यह कांड ब्रिटिश “डिवाइड एंड रूल” नीति और उस समय बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार की निष्क्रियता का सीधा नतीजा था।


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नोआखली: जब आग गाँव-गाँव फैली

कलकत्ता की हिंसा थमी ही थी कि दो महीने बाद अक्टूबर 1946 में, बंगाल के नोआखली ज़िले (जो अब बांग्लादेश में है) में सांप्रदायिक आग फैल गई।

यहाँ हिंदुओं पर बड़े पैमाने पर हमले हुए।

  • घरों को जला दिया गया।

  • मंदिरों और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुँचाया गया।

  • लोगों को जबरन धर्मांतरण करने पर मजबूर किया गया।

सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि हज़ारों हिंदुओं की हत्या हुई और लाखों लोग विस्थापित हुए।

महात्मा गांधी स्वयं नोआखली पहुँचे। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर लोगों से अहिंसा और शांति की अपील की, लेकिन जो घाव इस हिंसा ने समाज पर छोड़े, वे लंबे समय तक नहीं भर सके।


असर: विभाजन की अनिवार्यता

इन दोनों घटनाओं ने केवल तत्कालीन सांप्रदायिक तनाव को नहीं दिखाया, बल्कि भारत के भविष्य को गहराई से प्रभावित किया।

  1. विभाजन की दिशा साफ़ हो गई – यह स्पष्ट हो गया कि हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि साथ रहना मुश्किल है। पाकिस्तान की मांग को और मजबूती मिली।

  2. राजनीतिक समझौते – कांग्रेस नेतृत्व भी इस नतीजे पर पहुँचा कि अब विभाजन टालना लगभग असंभव है।

  3. सामाजिक ताना-बाना टूटा – लाखों लोग बेघर हुए, सांप्रदायिक अविश्वास गहराया और बंगाल का साझा सांस्कृतिक जीवन बुरी तरह बिखर गया।


इतिहास की सीख

इतिहासकार बिपन चंद्र अपनी किताब India’s Struggle for Independence में लिखते हैं कि कलकत्ता और नोआखली की घटनाएँ ब्रिटिश शासन और स्थानीय नेतृत्व की संयुक्त असफलता थीं। ब्रिटिश प्रशासन जानबूझकर निर्णायक कदम नहीं उठा सका और सांप्रदायिक राजनीति ने इस शून्य का भरपूर फायदा उठाया।

कलकत्ता की गलियों में बिखरी लाशें और नोआखली के उजड़े गाँव केवल हिंसा की कहानियाँ नहीं थे। ये भारत के विभाजन की प्रस्तावना थे। इन घटनाओं ने यह सिखाया कि जब राजनीति धर्म और पहचान पर आधारित हो जाती है, तो उसका असर समाज को भीतर से तोड़ देता है।


आज क्यों ज़रूरी है याद करना?

“द बंगाल फाइल्स” सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक दर्पण है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि इतिहास केवल बीता हुआ किस्सा नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए चेतावनी भी है।

सांप्रदायिक राजनीति और सत्ता संघर्ष का अंजाम क्या हो सकता है, यह 1946 ने हमें दिखा दिया था। सवाल यह है कि क्या हमने उस दौर से कोई सबक लिया है?



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