चीन बनाम भारत - कहा खड़े है हम ?
भारत की पहचान लंबे समय से सेवा-प्रधान अर्थव्यवस्था की रही है। आईटी, बीपीओ, औषधि और प्रोफेशनल सेवाओं ने न केवल वैश्विक मानचित्र पर देश को स्थापित किया बल्कि लाखों युवाओं को रोज़गार भी दिया। परंतु एक बड़ा सवाल अब भी अनुत्तरित है—क्या भारत केवल सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था बनकर विश्व की महाशक्ति बन सकता है, या उसे उत्पाद-आधारित (मैन्युफैक्चरिंग-ड्रिवन) विकास की दिशा में बढ़ना होगा?
मोदी सरकार के दस वर्षों में यह प्रश्न और प्रासंगिक हुआ है क्योंकि वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में चीन ने दिखा दिया है कि उत्पादक क्षमता ही किसी देश को स्थायी आर्थिक ताकत प्रदान करती है।
भारत की हकीकत: आँकड़ों की जुबानी
भारत की जीडीपी का करीब 12–13% हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग से आता है, जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान 50% से भी अधिक है। विश्व बैंक के नवीनतम आकलनों
के अनुसार, भारत का मैन्युफैक्चरिंग वैल्यू-एडेड लगभग 490 अरब डॉलर है, जबकि चीन का आँकड़ा 4.6 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है।
इस तुलना से साफ़ है कि वैश्विक उत्पादन परिदृश्य में भारत का हिस्सा केवल 2.5–3% है, जबकि चीन अकेले विश्व मैन्युफैक्चरिंग का एक चौथाई से अधिक (25–29%) नियंत्रित करता है।
भारत की कुल अर्थव्यवस्था का हिस्सा विश्व जीडीपी में लगभग 3.5–4% है, लेकिन उत्पादन-आधारित योगदान इसमें छोटा है। यानी भारत की ताकत अभी सेवाओं तक सीमित है।
मोदी शासन और उत्पाद-आधारित पहलें
2014 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने यह समझा कि भारत केवल सेवाओं पर टिककर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे नहीं बढ़ सकता। इसी सोच से ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत हुई। लक्ष्य था कि मैन्युफैक्चरिंग का योगदान जीडीपी में 25% तक पहुँचे। परंतु दस वर्ष बाद भी यह आँकड़ा 13% से ऊपर नहीं जा पाया।
Production Linked Incentive (PLI) स्कीम ने कुछ उम्मीद जगाई। मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो-पार्ट्स और दवाओं जैसे क्षेत्रों में निवेश आया। भारत आज दुनिया का एक बड़ा स्मार्टफोन असेंबली केंद्र बन चुका है और निर्यात भी बढ़ा है। लेकिन असेंबली और उत्पादन में अंतर है—ज्यादातर उच्च-स्तरीय कंपोनेंट्स अब भी आयातित हैं।
इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश—जैसे एक्सप्रेसवे, डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर और इंडस्ट्रियल पार्क—ने लॉजिस्टिक्स को गति दी, पर लागत और समय अब भी चीन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते।
चीन क्यों इतना आगे है?
चीन की सफलता केवल सस्ते श्रम पर आधारित नहीं है। उसकी औद्योगिक नीति में कुछ विशेषताएँ हैं:
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क्लस्टर-आधारित मैन्युफैक्चरिंग: एक ही क्षेत्र में कच्चे माल से लेकर तैयार उत्पाद तक की संपूर्ण सप्लाई-चेन।
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भारी पूँजी निवेश: सरकार और निजी क्षेत्र दोनों ने उत्पादन-इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लगातार निवेश किया।
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तकनीकी ट्रांसफर और नवाचार: पश्चिमी देशों से तकनीक हासिल करने के बाद स्थानीय स्तर पर बड़े पैमाने पर अनुसंधान और नवाचार।
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निरंतरता: नीतियों में स्थिरता और दीर्घकालिक लक्ष्य, जो निवेशकों को भरोसा दिलाते हैं।
इसके मुकाबले भारत की नीतियाँ अक्सर चुनावी चक्रों और अल्पकालिक लक्ष्यों से प्रभावित होती हैं।
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भारत की सीमाएँ और आंशिक सफलताएँ
भारत ने कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है:
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मोबाइल फोन निर्माण: निर्यात में तेजी आई है और Apple जैसी कंपनियाँ भारत में उत्पादन बढ़ा रही हैं।
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जेनेरिक दवा उद्योग: भारत अब भी विश्व के लिए सस्ती दवाओं का सबसे बड़ा सप्लायर है।
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ऑटो और ऑटो-पार्ट्स: घरेलू और वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा कर रहा है, साथ ही ईवी पारिस्थितिकी तंत्र की शुरुआत हो चुकी है।
लेकिन सेमीकंडक्टर, प्रिसिजन मशीनरी और हाई-टेक उपकरणों के उत्पादन में भारत पिछड़ा है। इन क्षेत्रों में चीन ने जो मजबूत नींव बनाई, भारत वहाँ अभी शुरुआती दौर में है।
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आगे का रोडमैप: क्या होना चाहिए?
भारत को अगले दशक में उत्पाद-आधारित ताकत बनने के लिए गहन और निरंतर रणनीति अपनानी होगी।
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PLI 2.0 का विस्तार: इंसेंटिव योजनाओं को केवल असेंबली तक सीमित न रखकर कंपोनेंट-स्तर के उत्पादन से जोड़ा जाए।
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लॉजिस्टिक्स सुधार: बंदरगाह, रेल और सड़क नेटवर्क को विश्वस्तरीय दक्षता तक ले जाना होगा।
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कौशल विकास: व्यावसायिक प्रशिक्षण, टेक्निकल यूनिवर्सिटी और इंडस्ट्री-इंटीग्रेटेड पाठ्यक्रम को बड़े पैमाने पर बढ़ाना।
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MSME को समर्थन: छोटे उद्योगों के फॉर्मलाइजेशन और सस्ती क्रेडिट तक आसान पहुँच।
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हाई-टेक इंडस्ट्री निवेश: सेमीकंडक्टर, एआई, ईवी बैटरी और प्रिसिजन इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में जोखिम लेने की क्षमता।
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ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग: नवीकरणीय ऊर्जा और ग्रीन हाइड्रोजन को उत्पादन लागत घटाने और निर्यात-प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए उपयोग में लाना।
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राज्य-स्तरीय प्रतिस्पर्धा: राज्यों को निवेश-अनुकूल माहौल बनाने में अधिक स्वायत्तता और जवाबदेही देना।
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निर्यात-प्रथम रणनीति: वैश्विक बाज़ार में विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो-पार्ट्स और फार्मा के लिए बड़े एक्सपोर्ट-हब विकसित करना।
रैंक | देश | Manufacturing Value-Added (USD approx.) | वैश्विक हिस्सेदारी |
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1 | चीन (China) | 4.5–4.7 ट्रिलियन | ~25–29% |
2 | अमेरिका (USA) | 2.3–2.5 ट्रिलियन | ~12–13% |
3 | जापान (Japan) | 1.0–1.1 ट्रिलियन | ~5–6% |
4 | जर्मनी (Germany) | 0.9–1.0 ट्रिलियन | ~5% |
5 | दक्षिण कोरिया (South Korea) | 0.4–0.45 ट्रिलियन | ~2–3% |
6 | भारत (India) | 0.49 ट्रिलियन | ~3% |
7 | इटली (Italy) | 0.45–0.5 ट्रिलियन | ~2–3% |
8 | फ्रांस (France) | 0.35–0.4 ट्रिलियन | ~2% |
9 | ब्राजील (Brazil) | 0.3–0.35 ट्रिलियन | ~2% |
10 | रूस (Russia) | 0.3 ट्रिलियन | ~1.5–2% |
आगे का रास्ता
मोदी सरकार ने सेवा-प्रधान अर्थव्यवस्था को संतुलित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, परंतु यात्रा लंबी है। आज भारत वैश्विक सेवाओं का नेता है, लेकिन उत्पाद निर्माण में उसकी हिस्सेदारी नगण्य है।
भारत का विश्व जीडीपी में हिस्सा 3–4% तक पहुँच चुका है, लेकिन उत्पादन में योगदान केवल 3% है। यदि अगले 10 वर्षों में नीतिगत स्थिरता, गहरी औद्योगिक रणनीति और राज्य-केंद्र सहयोग कायम रहे तो भारत सेवा और उत्पाद दोनों क्षेत्रों में वैश्विक शक्ति बन सकता है।
असली चुनौती यही है—भारत को केवल ‘कोडिंग और कॉल-सेंटर’ तक सीमित नहीं रहना है, बल्कि ‘कारखानों और कंपोनेंट्स’ में भी अपनी पहचान बनानी है। जब तक भारत उत्पाद-आधारित ताकत नहीं बनेगा, तब तक वह चीन जैसी स्थायी वैश्विक आर्थिक शक्ति के स्तर पर नहीं पहुँच पाएगा।
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