मैकाले का प्रभाव क्या हम भारतियों की कमी नहीं है ?
19वीं सदी के उपनिवेशिक प्रशासन में एक नीति-निर्माता के रूप में उभरे Thomas Babington Macaulay ने अपने Minute on Indian Education (1835) के माध्यम से भारतीय शिक्षा की दिशा को ऐसा मोड़ दिया, जिसका प्रभाव आज तक बिना कमजोर हुए कायम है। उनकी सोच सरल लगती थी—अंग्रेज़ी को ज्ञान और आधुनिकता का एकमात्र वैध माध्यम घोषित करना—पर असल में यह एक रणनीतिक औजार था जो साम्राज्य की वैचारिक पकड़ को गहरा करता था। भारतीय भाषाओं और स्वदेशी ज्ञान-परंपराओं को “निकृष्ट” घोषित कर देने से पूरे समाज की बौद्धिक रीढ़ को कमजोर किया गया, और एक ऐसा वर्ग तैयार किया गया जो सोच में भारतीय नहीं, पर शासन में ब्रिटिश हितों के अनुकूल हो।
मैकाले की नीतियाँ इतनी टिकाऊ इसलिए रहीं क्योंकि वे शिक्षा को सामाजिक विकास नहीं, प्रशासनिक नियंत्रण का साधन मानती थीं। ब्रिटिश शासन ने शिक्षा को सीमित संसाधनों में चलने वाली परीक्षा-आधारित मशीन में बदल दिया—जहाँ कौशल, शोध, तर्क, कला, भारतीय भाषाओं या स्थानीय जरूरतों का महत्व न्यूनतम था। स्वतंत्रता के बाद भी संस्थागत ढांचा लगभग अपरिवर्तित रहा—सिलेबस, मूल्यांकन, विश्वविद्यालयों की संरचना, अंग्रेज़ी-केंद्रित प्रतिष्ठा—सब उसी मानसिकता के अनुरूप चलते रहे। आर्थिक उदारीकरण और तकनीकी क्रांति के बावजूद शिक्षा का मूल चरित्र “नौकरी हेतु डिग्री” वाली औपनिवेशिक विरासत में कैद रहा। यही कारण है कि आज भी भारतीय शिक्षा में रटंत, परीक्षा-प्रमुख सोच, और भाषा-हीन आत्मविश्वास संकट गहरे हैं।
मैकाले की विरासत की मजबूती का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अंग्रेज़ी धीरे-धीरे अवसर, पहचान और सफलता का प्रतीक बन गई। इससे भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा और शोध का ढांचा कमजोर रह गया, और सुधारों की चर्चा भी अक्सर “अंग्रेज़ी बनाम भारतीय भाषा” जैसे सतही विमर्श में उलझ जाती है, जबकि असली प्रश्न शिक्षा के उद्देश्य का है: वह किस प्रकार का मनुष्य और किस प्रकार का समाज तैयार करे?
अगला रास्ता साफ है: शिक्षा को भाषा-वर्चस्व की लड़ाई से निकालकर उसे सीखने, कौशल और नवाचार की जमीन पर लाना होगा। भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक लेखन और उच्च शिक्षा का विस्तार, अंग्रेज़ी को विकल्प के रूप में रखना—बाध्यता के रूप में नहीं—और शिक्षा को परीक्षा-नियंत्रित ढांचे से हटाकर शोध, प्रयोग, सृजनशीलता और समस्या-समाधान केंद्रित बनाना ही आगे की दिशा हो सकती है। स्वदेशी ज्ञान, आधुनिक विज्ञान और वैश्विक तकनीक को जोड़ते हुए एक ऐसा मॉडल तैयार करना होगा जो भारतीय समाज की जरूरतों के अनुरूप हो।
शिक्षा का मूल उद्देश्य एक स्वायत्त, विवेकशील, नवाचारी और संवेदनशील नागरिक तैयार करना है—न कि केवल नौकरी पाने वाली आबादी। भारत तभी बौद्धिक रूप से स्वतंत्र कहा जा सकेगा जब शिक्षा मैकाले की प्रशासनिक मंशा से बाहर निकलकर अपनी सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप पुनर्निर्मित होगी।
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