दिन में तीन बार भोजन की परंपरा पर बहस: क्या हमारी थाली ही हमारी बीमारियों की जड़ है?


 

भारत में बढ़ते मधुमेह, मोटापा और हृदय रोग को लेकर आम तौर पर दोष जीवनशैली, तनाव और जंक फूड को दिया जाता है। लेकिन अब एक वैकल्पिक दृष्टिकोण सार्वजनिक विमर्श में जगह बना रहा है—क्या समस्या सिर्फ क्या खाने की नहीं, बल्कि कितनी बार खाने की भी है?

स्वास्थ्य विशेषज्ञों और इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना है कि दिन में तीन बार भोजन करना कोई जैविक आवश्यकता नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दौर में विकसित एक प्रशासनिक ढांचा है, जिसका भारतीय शरीर और संस्कृति से सीधा संबंध नहीं रहा।


घड़ी से पहले, सूर्य से चलता था भोजन

औपनिवेशिक काल से पहले भारतीय समाज में भोजन समय से नहीं, बल्कि प्रकृति से नियंत्रित था। ऐतिहासिक स्रोतों और लोक परंपराओं के अनुसार, अधिकांश लोग दिन में एक मुख्य भोजन करते थे। कुछ क्षेत्रों में दो बार भोजन प्रचलित था, लेकिन तीन बार भोजन अपवाद माना जाता था।

भोजन का समय सूर्य की स्थिति, मौसम, श्रम और भूख पर निर्भर करता था। सूर्यास्त के बाद भारी भोजन को सामान्यतः टाला जाता था। यह व्यवस्था किसी चिकित्सा निर्देश से नहीं, बल्कि अनुभवजन्य ज्ञान से विकसित हुई थी।


उपवास: अभाव नहीं, अनुशासन

आज जिस उपवास को अक्सर मजबूरी या धार्मिक कट्टरता के रूप में देखा जाता है, वह पारंपरिक भारत में जीवन का संतुलन बनाए रखने का एक साधन था। एकादशी, नवरात्रि, चातुर्मास जैसे व्रत केवल आध्यात्मिक नहीं थे, बल्कि पाचन और चयापचय को विश्राम देने की प्रणाली भी थे।

भूख को शत्रु नहीं माना जाता था, बल्कि शरीर की एक स्वाभाविक भाषा के रूप में स्वीकार किया जाता था।


स्थानीय भोजन और सक्रिय शरीर

पारंपरिक भारतीय आहार मोटे अनाज, दालों, कंद-मूल, मौसमी सब्ज़ियों और सीमित डेयरी पर आधारित था। ज्वार, बाजरा और रागी जैसे अनाज क्षेत्रीय जलवायु के अनुरूप थे। चावल और गेहूँ प्रमुख नहीं, बल्कि कई विकल्पों में से कुछ थे।

इस जीवनशैली में संक्रामक रोग तो थे, लेकिन मधुमेह और मोटापा जैसे मेटाबोलिक रोग दुर्लभ थे। शारीरिक श्रम जीवन का हिस्सा था, और शरीर स्वाभाविक रूप से सक्रिय रहते थे।


औपनिवेशिक हस्तक्षेप और भोजन का मानकीकरण

इतिहासकारों के अनुसार, ब्रिटिश शासन ने केवल प्रशासन और अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि समय और भोजन की आदतों को भी मानकीकृत किया। कारखानों और दफ्तरों के लिए निश्चित कार्य घंटे तय किए गए, और उसी के अनुरूप भोजन के समय भी निर्धारित हुए।

सुबह नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना—यह ढांचा स्वास्थ्य के बजाय उत्पादकता और नियंत्रण की ज़रूरतों से जुड़ा था।


आज़ादी के बाद भी नहीं बदली थाली

1947 के बाद राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, लेकिन खाद्य नीति में निरंतरता बनी रही। हरित क्रांति के साथ गेहूँ और चावल को बढ़ावा मिला। न्यूनतम समर्थन मूल्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने इन दो अनाजों को केंद्र में ला दिया, जबकि मोटे अनाज हाशिए पर चले गए।

इस बदलाव ने भोजन की विविधता कम की और कार्बोहाइड्रेट-प्रधान आहार को सामान्य बना दिया।


बीमारी का उभरता उद्योग

स्वास्थ्य आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ दशकों में गैर-संचारी रोगों में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इसके साथ ही दवा, बीमा और अस्पताल आधारित स्वास्थ्य व्यवस्था का विस्तार भी हुआ।

आलोचक सवाल उठाते हैं कि क्या यह व्यवस्था बीमारी को खत्म करने के लिए है, या उसे प्रबंधित कर लंबे समय तक बनाए रखने के लिए।


लंबी उम्र या लंबा इलाज?

औसत आयु बढ़ी है, लेकिन स्वस्थ जीवन वर्षों का अनुपात उतना नहीं। बड़ी आबादी दवाओं, नियमित जांच और चिकित्सा निर्भरता के सहारे जीवन जी रही है।

यही वह बिंदु है जहाँ बहस तेज़ होती है—क्या आधुनिक भोजन प्रणाली नागरिकों को स्वस्थ बना रही है, या उन्हें एक स्थायी उपभोक्ता में बदल रही है?


असली सवाल

यह प्रश्न अब केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। यह खाद्य नीति, कृषि व्यवस्था और सार्वजनिक स्वास्थ्य मॉडल से जुड़ा है।

विशेषज्ञों का कहना है कि बहस “आप क्या खाते हैं” से आगे बढ़कर “आप कितनी बार खाते हैं” और “इससे लाभ किसे होता है” तक पहुँचना चाहिए।

क्योंकि संभव है कि उत्तर हमारी थाली में नहीं, बल्कि उस व्यवस्था में छिपा हो जिसने उसे परोसा है।

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