स्त्री विमर्श - एक चिंतन

आज जब हम 'नारीवाद' और 'स्त्री विमर्श' की बात करते हैं, तो यह एक वैश्विक संवाद का हिस्सा बन जाता है। भारत इस वैश्विक चर्चा में कहाँ खड़ा है? क्या पश्चिमी स्त्रीवाद के मापदंडों से ही हम अपनी प्रगति को आँक सकते हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर जितना सरल दिखता है, उसका सत्य उतना ही जटिल है।


वैश्विक परिदृश्य: एक संक्षिप्त दृष्टि


विश्व स्तर पर स्त्री विमर्श ने कई चरण देखे हैं। पहली लहर ने मताधिकार और कानूनी समानता पर बल दिया। दूसरी लहर ने नारीत्व, यौनिकता और व्यक्तिगत को राजनीतिक माना। तीसरी लहर ने विविधता और अंतर्वैयक्तिकता पर जोर दिया। वर्तमान में, चौथी लहर मी-टू आंदोलन, डिजिटल एक्टिविज्म, और सूक्ष्म-आक्रामकताओं के विरुद्ध लड़ाई से प्रभावित है। यह लहर अंतरखंडीयता (Intersectionality) पर केंद्रित है, जो बताती है कि एक स्त्री पर केवल लिंग आधारित उत्पीड़न ही नहीं, बल्कि उसकी जाति, वर्ग, धर्म और यौनिकता के आधार पर भी उत्पीड़न के कई स्तर होते हैं।


भारतीय संदर्भ: स्वयं का मार्ग


भारत में स्त्री विमर्श की चर्चा वैश्विक प्रवाह से जुड़ी हुई है, पर उसकी जड़ें अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक मिट्टी में गहरी हैं। यहाँ की चर्चा के कुछ प्रमुख आयाम हैं:


1.  परंपरा बनाम आधुनिकता का द्वंद्व: वैश्विक चर्चा अक्सर स्त्री को एक व्यक्ति के रूप में स्थापित करने पर केंद्रित है। भारतीय संदर्भ में, स्त्री 'परिवार' और 'समुदाय' की इकाई के भीतर अपनी पहचान तलाशती है। इसलिए यहाँ का विमर्श केवल पुरुषों के विरुद्ध नहीं, बल्कि उन सामाजिक संरचनाओं के विरुद्ध है जो उसे स्वतंत्र अस्तित्व नहीं देतीं, भले ही वे संरचनाएँ स्त्रियों द्वारा ही क्यों न निर्मित हों।


2.  अंतरखंडीयता का वास्तविक स्वरूप: भारत में अंतरखंडीयता कोई आयातित सिद्धांत नहीं है, बल्कि यहाँ की सामाजिक वास्तविकता है। एक सवर्ण शहरी शिक्षित महिला और एक दलित ग्रामीण मजदूर महिला के अनुभवों का संसार अलग है। भारतीय स्त्रीवादी विमर्श तभी सार्थक होगा जब वह जाति, वर्ग और क्षेत्र के इन अंतरों को केंद्र में रखकर चले।


3.  कानूनी सशक्तिकरण बनाम सामाजिक मानसिकता: भारत में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित प्रगतिशील कानूनों की कमी नहीं है। परंतु, कानून का सामाजिक स्वीकृति के साथ सिंक्रोनाइज़ न हो पाना एक बड़ी चुनौती है। दहेज उन्मूलन कानून होने के बावजूद दहेज की घटनाएँ, और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न कानून होने के बावजूद अनदेखी, इसी अंतराल को दर्शाती हैं।


4.  नई चुनौतियाँ: डिजिटल युग और महिलाएँ: वैश्विक स्तर पर जहाँ डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने महिलाओं को आवाज़ दी है, वहीं 'साइबर बुलिंग', 'ऑनलाइन हैरेसमेंट' और 'डीप फेक' जैसी नई आशंकाएँ भी पैदा की हैं। भारत में इंटरनेट की पहुँच बढ़ने के साथ, ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों की महिलाएँ इन खतरों का सामना कर रही हैं।

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 एक समावेशी भविष्य की ओर

भारत के स्त्री विमर्श को वैश्विक चर्चा से अलग-थलग देखना एक भूल होगी, पर उसकी नकल करना एक और बड़ी भूल। भारत की चुनौती और अवसर दोनों ही उसकी विविधता में निहित हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम एक ऐसा स्वदेशी विमर्श विकसित करें जो:


वैश्विक सिद्धांतों को अंधानुकरण न करे, बल्कि उन्हें भारतीय सामाजिक ताने-बाने में पिरोकर देखे।

ग्रामीण भारत की महिला की आवाज़ को महानगरीय विमर्श के समकक्ष लाने का प्रयास करे।

पुरुषों को विरोधी न मानकर, सहयोगी के रूप में शामिल करे। स्त्री-पुरुष की बाइनरी से ऊपर उठकर मानवीय गरिमा और समानता का लक्ष्य रखे।

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अंततः, स्त्री विमर्श का लक्ष्य केवल 'स्त्री' की बात करना नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की रचना करना है जो अधिक न्यायसंगत, संवेदनशील और मानवीय हो। और यही वह साझा भूमि है जहाँ भारत का विमर्श वैश्विक चर्चा से गहराई से जुड़ जाता है, अपनी एक विशिष्ट और सशक्त पहचान के साथ।

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