बुलडोज़र मॉडल: शासन की शक्ति या प्रदर्शन का मनोविज्ञान?


बुलडोज़र मॉडल: शासन की शक्ति या प्रदर्शन का मनोविज्ञान?

एक गहन रिपोर्ट – डेटा, इतिहास और राजनीति की परतों के साथ


भूमिका: “धूल में न्याय की आवाज़”

उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ “बुलडोज़र मॉडल” अब भारतीय राजनीति का चर्चित प्रतीक बन चुका है। किसी अपराध या हिंसा की घटना के बाद जब अवैध निर्माण पर बुलडोज़र चलता है, तो शासन का संदेश साफ़ होता है — कानून के साथ खिलवाड़ नहीं चलेगा।

लेकिन इस दृश्यमान कठोरता के पीछे कई परतें हैं — राजनीति, मनोविज्ञान और सामाजिक प्रभाव की — जिन पर बात करना आवश्यक है।


1. इतिहास की पुनरावृत्ति: अंग्रेज़ी राज से आज तक

वरिष्ठ लेखक जावेद अख्तर ने हाल में कहा था कि “बुलडोज़र मॉडल कोई नया आविष्कार नहीं, यह अंग्रेज़ी राज की दहशतनीति की आधुनिक रूपांतर है।”
ब्रिटिश शासन में “Collective Punishment” का तरीका अपनाया जाता था — जहाँ किसी अपराध के जवाब में पूरे गाँव को दंडित किया जाता।
आज वही विचार आधुनिक लोकतंत्र में “दृश्य न्याय” (Visual Justice) के रूप में लौट आया है।


2. राजनीतिक मनोविज्ञान: दृश्य ही शक्ति है

2017 के बाद यूपी में यह मॉडल न सिर्फ़ प्रशासनिक कार्रवाई रहा, बल्कि राजनीतिक प्रतीक बन गया।

  • जनता के लिए यह “कठोर शासन” की पहचान बना।
  • सरकार के लिए यह “instant justice” का दृश्य था।
  • मीडिया के लिए यह “viral content”।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह एक “Spectacle Politics” का उदाहरण है — ऐसी राजनीति जो काम से नहीं, दृश्य प्रभाव से वैधता पाती है।
लोगों को न्याय महसूस होता है, भले वो कानूनी रूप से सिद्ध न हो।


3. डेटा जो कहानी कहता है

Human Rights Law Network (HLRN) के अनुसार:

  • 2023 में 1,07,449 घर और ढाँचे ध्वस्त किए गए।
  • करीब 5.15 लाख लोग विस्थापित हुए।

यह आँकड़ा बताता है कि पिछले पाँच वर्षों में जबरन विस्थापन की घटनाओं में लगभग 5 गुना वृद्धि हुई है।

Amnesty International की 2022 रिपोर्ट में कहा गया कि इन मामलों में अधिकांश ध्वंस “दंडात्मक” स्वरूप के थे — कानूनी नोटिस या सुनवाई के बिना।
कई बार नोटिस 24 घंटे से भी कम समय में दिया गया, कुछ मामलों में सिर्फ़ मौखिक रूप से।


4. अदालत की चेतावनी

2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इन घटनाओं पर स्वत: संज्ञान लिया।
अदालत ने कहा:

“किसी नागरिक की संपत्ति पर बुलडोज़र चलाना तभी वैध है जब उचित प्रक्रिया, नोटिस और सुनवाई का पालन हुआ हो। अन्यथा यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है।”

इसके बाद केंद्र और राज्यों को due process guidelines जारी करनी पड़ीं — जिसमें रिकॉर्डिंग, नोटिस, और पुनर्वास जैसी प्रक्रिया को अनिवार्य किया गया।


5. अन्य राज्यों में फैलाव

उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश, गुजरात, असम और दिल्ली में भी बुलडोज़र मॉडल अपनाया गया।
इसका कारण था —

  1. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा: “हम भी सख्त हैं” दिखाना।
  2. जनभावना का फायदा: जनता को ‘कानून की ताक़त’ का प्रदर्शन पसंद आया।
  3. मीडिया का amplification: हर कार्रवाई लाइव प्रसारित होने लगी, जिससे यह ‘ब्रांड बुलडोज़र’ बन गया।

6. सामाजिक और नैतिक प्रश्न

  • क्या अपराधी को अदालत से पहले सज़ा दी जा सकती है?
  • क्या अपराधी के साथ उसका पूरा परिवार दंड भुगते?
  • और क्या लोकतंत्र में “डर” शासन का स्थायी उपकरण बन सकता है?

मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि यह मॉडल धीरे-धीरे “Rule of Law” से “Rule by Fear” की ओर बढ़ रहा है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, शहरी गरीब और निम्न-मध्यम वर्ग के बीच इससे संस्थागत असुरक्षा बढ़ी है।


7. मनोवैज्ञानिक प्रभाव: डर में जन्मा भरोसा

सामाजिक मनोवैज्ञानिक डॉ. साक्षी मेहरा कहती हैं:

“जब जनता लंबे समय तक अन्याय या अपराध से असुरक्षित महसूस करती है, तो वह कठोर शासन में सुरक्षा ढूँढने लगती है। यही बुलडोज़र मॉडल की लोकप्रियता का कारण है — यह भय को ही समाधान बना देता है।”


8. भविष्य की दिशा

विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले 3–5 वर्षों में:

  • बुलडोज़र प्रतीकात्मक रूप में राजनीति में रहेगा — पोस्टरों और भाषणों में।
  • लेकिन कानूनी रूप से इसका दायरा सिमटेगा — अदालतें और मानवाधिकार निगरानी बढ़ा रही हैं।
  • अगर शासन इसे संस्थागत सुधार की दिशा में मोड़े — यानी अवैध निर्माण और अपराध नियंत्रण की प्रक्रियात्मक पारदर्शिता लाए — तो यह मॉडल स्थायी रूप से स्वीकार्य बन सकता है।

 जब कानून ताक़त से बड़ा होता है

बुलडोज़र मॉडल ने दिखाया कि जनता न्याय के लिए उतनी ही भूखी है जितनी भय से थकी हुई।
लेकिन किसी भी लोकतंत्र की असली कसौटी यही है — क्या कानून सत्ता से ऊपर है, या सत्ता कानून से बड़ी हो गई है?

“बुलडोज़र” अब सिर्फ़ मशीन नहीं, एक रूपक है — शासन की शक्ति, जनता की मनोविज्ञान और समाज की चुप्पी का।
धूल भले बैठ जाए, पर सवाल अब भी हवा में तैर रहा है —
क्या हम न्याय चाहते हैं, या उसका सिर्फ़ दृश्य?


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