नई खान-पान क्रांति: दूध से ब्लैक वॉटर तक, कहाँ जा रहा है हमारा भोजन-भविष्य?

 


नई खान-पान क्रांति: दूध से ब्लैक वॉटर तक, कहाँ जा रहा है हमारा भोजन-भविष्य?

भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं रहा। अब यह पहचान, विचार और बाजार की राजनीति का हिस्सा बन चुका है। शाकाहारी बनाम माँसाहारी की पुरानी बहस अब एक नई दिशा ले चुकी है — विगनिज़्म, प्लांट-बेस्ड मिल्क, और यहाँ तक कि ब्लैक वॉटर जैसी नयी उपभोग-संस्कृति तक पहुँच चुकी है। सवाल यही है — क्या यह बदलाव टिकाऊ है, या सिर्फ एक फैशन?


1. डेटा क्या कहता है — “प्लांट बनाम एनिमल” की जंग

वैश्विक स्तर पर बदलाव बहुत साफ है। Grand View Research के अनुसार,

  • ग्लोबल वेगन फूड मार्केट 2022 में लगभग $16.6 बिलियन का था, जो 2030 तक $37.5 बिलियन तक पहुँचने की संभावना है — लगभग 10% सालाना वृद्धि दर (CAGR) के साथ।
  • वहीं प्लांट-बेस्ड मिल्क (जैसे सोया, ओट, बादाम) का बाजार $20 बिलियन के करीब पहुँच चुका है और अगले पाँच वर्षों में 7–8% की दर से बढ़ने की उम्मीद है।

लेकिन हर सेगमेंट इतना भाग्यशाली नहीं है। 2024 की रिपोर्ट्स बताती हैं कि प्लांट-मीट की बिक्री में कई देशों में गिरावट आई, क्योंकि स्वाद और कीमत ने उपभोक्ता को बाँधे नहीं रखा। यानी “विगन” का टैग अब आदर्श नहीं, उपयोगिता पर टिका है।


2. भारत की स्थिति — दूध की पकड़ अब भी मजबूत

भारत में तस्वीर उलटी है। यहाँ पारंपरिक डेयरी उत्पाद न केवल सांस्कृतिक पहचान हैं, बल्कि रोजगार का आधार भी हैं।
NDDB (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड) के अनुसार, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है और 2025 तक दूध-खपत में स्थायी बढ़त बनी रहेगी।
शहरी क्षेत्रों में हालांकि ओट-मिल्क, सोया-मिल्क और आलमंड-मिल्क की माँग ज़रूर बढ़ी है — खासकर कॉफी-चेन और जिम-क्लाइंटेल में — पर इनकी हिस्सेदारी कुल मिल्क-सेगमेंट में अब भी 3–5% से ज़्यादा नहीं है।

इसलिए आने वाले समय में भारत में एक हाइब्रिड मार्केट बनने की संभावना है — जहाँ गाय-भैंस का दूध और पौधों से बने पेय दोनों समानांतर चलेंगे।


3. ब्लैक वॉटर — फैशन या फेक साइंस?

“ब्लैक वॉटर” यानी एक्टिवेटेड चारकोल युक्त पानी सोशल मीडिया पर “डिटॉक्स” और “pH balance” के नाम पर वायरल हुआ।
ब्रांड्स ने इसे “सेलिब्रिटी ड्रिंक” बना दिया, लेकिन विज्ञान कुछ और कहता है।
एक्टिवेटेड चारकोल का असली उपयोग मेडिकल-टॉक्सिकोलॉजी में होता है — विष या ड्रग-ओवरडोज के इलाज में।
लंबे समय तक इसे पीने से जरूरी पोषक तत्वों और दवाओं का अवशोषण रुक सकता है।
अमेरिकन FDA ने इसे “डेली बेवरेज” के रूप में मंज़ूरी नहीं दी है।

भारत में इसकी बिक्री अभी भी बिना स्पष्ट रेगुलेशन के चल रही है। यानी यह ट्रेंड सस्टेनेबल नहीं, बल्कि मार्केटिंग-ड्रिवन है।


4. उपभोक्ता की मानसिकता — स्वास्थ्य बनाम फैशन

नए उपभोक्ता की प्राथमिकता अब केवल स्वाद नहीं, बल्कि छवि भी है।
“मैं क्या खाता हूँ” अब “मैं कौन हूँ” का प्रतीक बन गया है।
शहरी युवाओं में विगनिज़्म का आकर्षण “नैतिक उपभोग” और “फिटनेस-ब्रांडिंग” दोनों से जुड़ा है।
लेकिन सर्वे बताते हैं कि 60% लोग जिन्होंने विगन डाइट शुरू की, वे एक वर्ष के भीतर वापस सामान्य भोजन पर लौट आए — मुख्यतः कीमत, स्वाद, और सोशल-कंविनियंस की वजह से।

इसका मतलब साफ है — विचार से ज़्यादा, व्यवहारिक सुविधा मायने रखती है।


5. भविष्य की दिशा — “हाइब्रिड डायट” का युग

आने वाले पाँच से सात सालों में दुनिया “या तो डेयरी या विगन” की बजाय “दोनों का मेल” अपनाने की ओर बढ़ रही है।
डेयरी कंपनियाँ अब “फंक्शनल मिल्क” बना रही हैं — यानी विटामिन-फोर्टिफाइड, लो-फैट और प्रोटीन-एन्हांस्ड दूध।
वहीं विगन ब्रांड “ओट-मिल्क बारिस्टा एडिशन” या “कैल्शियम-फोर्टिफाइड सोया-ड्रिंक” लाकर प्रैक्टिकल उपयोगिता पर ध्यान दे रहे हैं।

भारत में अमूल, नेस्ले और एपिगामिया जैसी कंपनियाँ अब “हाइब्रिड-लाइन्स” पर प्रयोग कर रही हैं — यानी एक ही ब्रांड के तहत डेयरी और नॉन-डेयरी दोनों विकल्प।


6. आर्थिक और सामाजिक असर

  • रोज़गार: डेयरी सेक्टर अब भी 8 करोड़ ग्रामीण परिवारों को आजीविका देता है। विगन सेक्टर में यह स्किल-बेस्ड मैन्युफैक्चरिंग तक सीमित है।
  • पर्यावरण: प्लांट-मिल्क का कार्बन-फुटप्रिंट डेयरी से लगभग 70% कम है, लेकिन पानी की खपत (खासकर बादाम-मिल्क में) काफी ज़्यादा होती है।
  • कीमतें: प्लांट-मिल्क ₹180–₹300 प्रति लीटर तक बिक रहा है, जबकि डेयरी दूध ₹60–₹80 में उपलब्ध है।
    इसलिए जब तक लागत और लॉजिस्टिक्स में क्रांति नहीं होती, आम उपभोक्ता डेयरी से पूरी तरह नहीं हटेगा।

 समझदारी से चुनिए, अंधानुकरण से नहीं

भविष्य के भोजन में विविधता होगी, चरमपंथ नहीं।
न तो पूरी तरह विगनिज़्म सबके लिए उपयुक्त है, न ही पारंपरिक डेयरी बिना सुधार के टिकेगी।
हमें ऐसे विकल्प चाहिए जो स्थानीय, सुलभ और वैज्ञानिक रूप से सही हों।

“ब्लैक वॉटर” जैसे ट्रेंड्स तात्कालिक उत्साह तो ला सकते हैं, पर असली स्थायित्व वहाँ है जहाँ पोषण और प्रमाण एक साथ हों।

आख़िरकार, खाने की दिशा वही सही है जो स्वास्थ्य, विज्ञान और संतुलन के साथ आगे बढ़े — न कि सिर्फ़ सोशल मीडिया की चमक के पीछे।


लेखक-टिप्पणी (Ankit Insight)

यह बहस अब धार्मिक या नैतिक नहीं, बल्कि विज्ञान और बाज़ार की है। आने वाले दशक में लेखन, पत्रकारिता और स्टार्टअप्स का बड़ा अवसर इसी “खान-पान परिवर्तन” के विश्लेषण में छिपा है — जो बताता है कि आने वाली पीढ़ी क्या खाएगी और क्यों।



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